2019 में ऑक्सफैम इंडिया की भारतीय मीडिया में जातिगत भागीदारी को लेकर एक रिपोर्ट आई जिसमें पाया गया कि भारतीय मीडिया, चाहे वो प्रिंट हो, इलेक्ट्रॉनिक हो या डिजिटल, में “ऊंची जाति वाले मीडिया कर्मियों का दबदबा है।
यह रिपोर्ट उन दावों को डेटा और फैक्ट्स के आधार पर सही साबित करती है जिनमें दलितों को मीडिया में बराबरी के मौके नहीं मिलने की बात कही जाती रही है।
इस रिपोर्ट ने खास तौर पर यह बताया है कि मीडिया संस्थानों में ऊंचे और डिसीज़न मेकिंग पदों पर कोई भी दलित, आदिवासी और OBC व्यक्ति मौजूद नहीं है।
कैसे ऊंची जाति के लोगों द्वारा नियंत्रित होता है भारतीय मीडिया
भारतीय मीडिया में दलितों को प्रतिनिधित्व नहीं मिलने का मुद्दा नया नहीं है। अगर हम इसके ऐतिहासिक पृष्टभूमि में देखें तो हमेशा से पत्रकारिता संप्रभु और तथाकथित ऊंची जाति के लोगों द्वारा नियंत्रित किया जाता रहा है।
इसी का नतीजा है कि आज हमें मीडिया में ऐसे जातिवादी अंतर देखने को मिलते हैं और इस अंतर को इस हद तक नॉर्मलाइज़ कर दिया गया है कि वैसे भी पत्रकार जो कि वंचितों के हक की हिमायत करते हैं, वे भी दलितों के प्रति इस नज़रअंदाज़ी के खिलाफ पुख्ता तौर से कुछ कहना या करना पसंद नहीं करते।
ऐसे में वे दलित जो पत्रकारिता के क्षेत्र में हैं, उनके लिए कितनी मुश्किल होती है इस पर गौर किया जाना चाहिए। 2019 में प्रतिष्ठित मीडिया संस्थान BBC में काम कर रही दलित जर्नलिस्ट मीणा कोतवाल ने यह आरोप लगाए थे कि उनके दलित होने की वजह से संस्थान में उन्हें उचित मौके नहीं दिए गए, उनकी दी गई स्टोरीज़ नहीं चलाई गई और आखिर में उन्हें नौकरी से निकाल दिया गया।
मेनस्ट्रीम मीडिया में ज्वाइन करते ही सुमित के सहकर्मियों ने जाति की पड़ताल शुरू कर दी
जातिगत भेदभाव के आरोपों की यह इकलौती कहानी नहीं है। ABP न्यूज़ और ज़ी न्यूज़ जैसे संस्थानों में कार्यरत रहे पत्रकार सुमित चौहान मेनस्ट्रीम मीडिया में अपनी दलित पहचान के साथ काम करने के तजुर्बे के बारे में बताते हुए कहते हैं कि ज्वाइन करते ही उनके सहकर्मियों ने उनकी जाति की पड़ताल करनी शुरू कर दी।
एक घटना का ज़िक्र करते हुए वो बताते हैं, “मेरे सरनेम (चौहान) से अक्सर लोगों को मेरी जाति का पक्का-पक्का पता नहीं चलता। तो एक दिन मेरे एक कलीग ने बातों-बातों में ही मुझसे कहा कि उसके तरफ तो कई छोटी जाति के लोग भी चौहान सरनेम लगाकर खुद को राजपूतों की तरह पेश करते हैं।”
सुमित आगे बताते हैं कि न्यूज़रूम और ऑफिस में उन्होंने कई बार जातीय टिप्पणियों का सामना किया है जिसकी वजह से किसी दलित कर्मी के लिए काफी अपमानजनक और हतोत्साहित करने वाला माहौल पैदा होता है।
2016 में उना में दलित युवकों पर हुए हमले के वक्त अपने ऑफिस में होने वाली चर्चा का ज़िक्र करते हुए वो बताते हैं कि उस घटना पर उनके एक सहकर्मी ने बेहद ही आपत्तिजनक और जातिवादी कमेंट करते हुए कहा था, “कुत्तों और चमारों को घी हजम नहीं होता”!
ऐसे माहौल में काम करना एक दलित पत्रकार के लिए बेहद ही तनाव और अपमान भरा होता है। कार्यस्थल पर इस तरह के उत्पीड़न के साथ ही एक सिस्टमैटिक भेदभाव भी देखने को मिलता है। सुमित बताते हैं कि दलित कर्मियों के काम की मीडिया संस्थानों में सामान्य से ज़्यादा स्क्रूटनी की जाती है। अक्सर उनके द्वारा की जाने वाली स्टोरीज़ को रिजेक्ट कर दिया जाता है। साथ ही प्रमोशन और समान अवसर से भी संस्थानों के प्रशासन द्वारा दलितों को वंचित रखा जाता है।
प्रमोशन के दौरान कैसे काम करता है जाति फैक्टर
‘दलित दस्तक’ के संस्थापक और एडिटर अशोक दास कहते हैं, “न्यायपालिका और मीडिया ये दो ऐसे क्षेत्र हैं जहां दलितों का प्रतिनिधित्व शून्य के बराबर है। जो तथाकथित मेनस्ट्रीम मीडिया है, उसके मालिक से लेकर एडिटर तक ब्राह्मण और बनिया समाज से आते हैं। ऐसे में दलित मुद्दों को कवर करने या फिर दलित समाज से आने वाले महत्वपूर्ण शख्सियतों के बारे में स्टोरी करने का कोई स्पेस इन संस्थानों में नहीं दिया जाता है।”
इन मीडिया घरानों में काम करने के अपने तजुर्बे के मार्फत इन संस्थानों की कार्यशैली के बारे में अशोक कहते हैं, “जब रोहित वेमुला का प्रकरण सामने आया था तो वह मामला मुझे तब जाकर कवर करने को कहा गया जब सोशल मीडिया द्वारा इसे प्रमुखता से उठाया गया। खैरलांजी नरसंहार हो या आदिवासी शिक्षिका और एक्टिविस्ट सोनी सोरी के बलात्कार जैसी जघन्य घटना, मेनस्ट्रीम मीडिया इन दलित मुद्दों का पूरी तरह से बॉयकॉट करता आया है। अब जब सोशल मीडिया के आने से इन मुद्दों को छिपाया नहीं जा सकता है, तब जाकर औपचारिकता के लिहाज से इन्हें दिखाया जाता है।”
मेनस्ट्रीम मीडिया में बहुजन समाज के रिप्रेज़ेंटेशन की बात पर अशोक बताते हैं, “हालांकि नौकरी मिलने के वक्त किसी की जाति भले नहीं पूछी जाती हो लेकिन जब आप काम करने लगते हैं, तो आपके सहकर्मी आपकी जाति पता करने की भरकस कोशिश करते हैं और इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़ दिया जाए तो मीडिया संस्थानों में किसी भी SC, ST या OBC के व्यक्ति को सब-एडिटर के पद से आगे बढ़ने ही नहीं दिया जाता है। जैसे ही उच्च पदों की बात आती है, वहां आपकी जाति मायने रखना शुरू कर देती है।”
मेनस्ट्रीम मीडिया द्वारा दलितों के मुद्दे उठाने वाले चुनिंदा संस्थानों को ऑल्टरनेटिव यानी वैकल्पिक मीडिया का नाम दिए जाने पर अशोक दास कहते हैं, “ब्राह्मणों द्वारा मीडिया पर जो कब्ज़ा जमाया गया है, वो इस कब्ज़े को कभी भी छोड़ना नहीं चाहते। तो अब जो कुछ ऑनलाइन मीडिया या अखबार इस कब्ज़े से बाहर हैं और अपनी बात बेहतर तरीके से सामने रख रहे हैं, उन्हें ऑल्टरनेटिव मीडिया कह दरकिनार कर वे अपना वर्चस्व कायम रखना चाहते हैं।”
प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से ऊंची जाति द्वारा मीडिया पर बनाई गई मोनोपॉली को जब तक तोड़ने की बात नहीं की जाएगी तब तक मीडिया की आज़ादी की बहस सेलेक्टिव और बेमानी होगी।
यह एक बड़ी विडम्बना ही है कि मीडिया, जिसका काम उन लोगों की आवाज़ बनना है जिन्हें अपनी बात कहने का मौका नहीं दिया जाता, वही अपने अंदरूनी ढांचे में उन तबकों के प्रतिनिधित्व को दबाता है। जिस तरह के माहौल में सुमित चौहान जैसे दलित पहचान वाले पत्रकारों को काम करना पड़ता है वो उनकी आज़ादी, उनके हक का हनन करता है।
सुमित बताते हैं कि उन्होंने अपने कार्यस्थलों के इस जातिवादी चेहरे की बात सबके सामने रखनी शुरू की तो उनके लिए करियर में आगे बढ़ना मुश्किल बना दिया गया।
असुरक्षा के घेरे के बीच दलित युवाओं का करियर
इस तरह की घटनाएँ उन दलित युवाओं की महत्वकांक्षा को तोड़ने का काम करती है, जिन्होंने अभी इस क्षेत्र में अपने करियर की शुरुआत की है या फिर ऐसी आकांक्षा रखते हैं। मैं अगर व्यक्तिगत तौर पर भी बताऊं तो इन अनुभवों को सुनकर एक दलित युवा होने के नाते खुद को अपने भविष्य और काम करने के मौकों के प्रति एक तरह की असुरक्षा की भावना से घिरा पाता हूँ।
इस तरह की असुरक्षा मेरे मन में यह डर भी पैदा करती है कि ब्राह्मणवादी ताकतों के खिलाफ या फिर दलितों के हक की हिमायत में लिखने की वजह से क्या मेरे लिए मेरे करियर से जुड़ी संभावनाओं पर प्रतिकूल असर पड़ेगा?
डॉ. अम्बेडकर ने पत्रकारिता के बारे में कहा था कि पत्रकारिता अब किसी व्यक्ति को नायक मानने और उसे पूजने में मगन है। समुदाय का भला करने की नीयत से की जाने वाली पत्रकारिता मौजूद नहीं है। इसके कुछ अपवाद ज़रूर हैं लेकिन उनकी संख्या बेहद कम है और उनकी आवाज़ कोई नहीं सुनता।